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‘शहजादे’

बस तू ही फनकार नहीं है शहजादे
कोई तेरा यार नहीं है शहजादे

होंठ भले ही तुझको अपना कहते हैं
लेकिन मन तैयार नहीं है शहजादे

खाली कमरा कब तक जी बहलाएगा
तन्हाई तो प्यार नहीं है शहजादे

सब कहते हैं अच्छा होगा पर ये भी
तुक्का है आसार नहीं है शहजादे

इससे लाड़ लड़ाके लड़ना पड़ता है
दिल दिल है तलवार नहीं है शहजादे

एक यही सच्चाई है दीवानों की
आँखे दुनियादार नहीं है शहजादे

इक दिन सबको मरना अच्छा लगता है
तेरा पहली बार नहीं है शहजादे

तेरी उल्फत रब का अव्वल तमगा है
हर कोई हकदार नहीं है शहजादे

तुझमे मुझको अपनी सूरत दिखती है
बाकी कोई रार नहीं है शहजादे

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Social distancing!

Social distancing!

रोजाना रात के दस बजे से
सुबह चार बजे तक रजाई में घुसकर
किसी सी फ़ोन पे बाते करना..
और दूसरे दिन वही शख़्स
मिल जाए अगर चार लोगों की भीड़ में
तो नजरें चुराकर भाग जाना।

Social distancing!
मुद्दतों बाद
किसी जान से भी प्यारे शख़्स को
किसी और के हाथों में हाथ डाले देखना
और बेहद करीब से गर्दन झुकाए गुजर जाना
उसने आज भी रखा हुआ है मगर
तुम्हारा पसंदीदा सितारें वाला टैटू अपनी पीठ पे

Social distancing!
किसी की मौत की खबर सुनकर भी
न जा पाना उसकी मैय्यत में
क्या कहेंगे उसके घरवाले?
आख़िरन रिश्ता क्या था
खिड़कियों से देखना जनाजे को
और उस हज़ारों की भीड़ के
कुल आंसुओ से भी हज़ार गुना ज्यादा रोना

Social distancing!
वनराज से रात भर झगड़कर भी
जब नन्दिनी, ननद के आगे
मुस्कुराकर खोलती है
अपने कमरे का किंवाड़..

Social distancing!
फ़क़त झूठ है प्रेमियों के लिए

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“टिकटोकिया शायर”

कितनी किताबें छपी है?
..एक भी नहीं..

गजलों और नज्मों से तो कागज भर दिए होंगे!
..वो क्या होता है?

अरे,तो लोग तुम्हें शाइर क्यूं बोलते है?
अच्छा वो!..नहीं, मैं रद्दी का काम करता हूँ,कुछ किताबें मिली थी रद्दी में सुदर्शन फ़ाकिर, होश तिमर्जी, कृष्णबिहारी नूर नाम था उन लोगों का उनके डायलाग मुझे अच्छे लगे। मैंने पढ़ लिए..पता नहीं क्यूँ लोग तालियां बजाते है।

उन्हें डायलाग नहीं शेर कहते है
हैं! शेर तो जंगल में होता है..

उफ़्फ़फ़! बताओं यहाँ कुआँ कहां है
क्यूँ?
…मुझे जान देनी है

मेरी दुकान के पीछे की तरफ़ था मगर अब सूख गया है
अब मैंने वहां वो किताबें डाल दी है जो नहीं बिकती..
मीर तकी मीर,जॉन एलिया,मोमिन खाँ मोमिन कितना कचरा करते थे..

सुनो! मुझे वही डूब के मरना है
अरे! लेकिन मैम साब अपना नाम तो बताती जाओ।
…परवीन शाकिर
वाह! लडको वाला नाम….
आप भी गजब हो।
चलो जाओ! तब तक मैं अपने फैन्स के लिए अहमद फ़ज़ार का कोई डॉयलोग टिकटोक पे डालता हूँ..

या अल्लाह! फ़ज़ार नहीं फराज…
(और किताबों वाले कुँए में एक शायरा गिर गई, सारे पत्तो ने फड़फड़ा के उसे गोद में ले लिया,ऊपर खड़े लोग इंस्टाग्राम पे लाइव थे..तभी कोई बोला “ओए!तेरे वीडियो पे कितने कमेंट आये रे।”

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“धोखा”

धोखा क्या है?
धोखा है जाकर के उस कैफ़े में
जिसमे बरसों पहले बैठे रहते थे
अबके दूजे साथी के संग आए है
बोल रहे है नए नवेले साथी को
तुमको इसकी कॉफी कैसे भाती है?
मैं तो पहली बार यहां पर आया हूँ

धोखा क्या है?
धोखा है इक लड़की से ये कहना
कि तुम क्या इस मोबाइल में
देख रही हो वेब सीरीज पागलपन की
यार किताबें पढ़ना-वढना शुरू करो
मन में खुदको ये ताना देते रहना
हाय! मेरा माजी गजलें पढ़ता था

धोखा क्या है
धोखा है कि बैठ के उस आंगन में
उससे कहना इस गोदी में सो जाओ
वो जो बस बाहों में भरना चाहती है
मैं उसका माथा सहलाना चाहता हूं
मैं भी किन जूनी बातों में उलझा हूँ
मैं भी जाने क्या-क्या सोचा करता हूँ

धोखा क्या है
धोखा! इक दूजे की बाहों में सोकर
हाथ फिराते उसके उजले बालों में
दे देना आवाज खुद ही के माजी को
और फिर डर कर के कह देना ये झूठी बात
ये तो मेरे सबसे प्यारे नॉवेल की
मनभावन सी एक सुहानी लड़की है
तुम तो बिल्कुल उसके जैसी लगती हो।

मर जाता मैं!गर वो नॉवेल मंगवा लेती

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‘फ़ोन’

फ़ोन के दोनों तरफ आवाजें है, प्रेम है!
फोन पर गर एक भी है मौन,तो है इंतज़ार…
फोन में भरे हुए हुंकारे है अनकही नाराजगी..
बीसीयों बार फोन करके काटना, मज़बूरी है
हलक के आखिरी हिस्से में दबे हुए लफ्ज़ की..
और अगर दोनों तरफ ही
इंतज़ार है किसी के फ़ोन का…तो
अफसोस…
प्रेम आउट ऑफ कवरेज है…और
आप ईगो के रोमिंग में प्रवेश कर चुके है

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“कायनात”

दस बड़े पत्थरो के नीचे दबा हुआ एक आदमी
मुझे याद आ रहे थे वे सब लोग
जो चिढ़ाते थे कभी दुलारते भी
मुझे ‘नन्हें’ कह कर..
मगर जब हर एक पत्थर ढक चुका है मेरे तन को
और अभी भी गुंजाइश है कि मैं एक पहाड़ ढो सकूं
मुझे गुमान हो रहा है अपनी कद-काठी पे
प्रेम,पैसा,परिवार के तीन पत्थर सीने पे
समाज,इज़्ज़त और रिश्तों के पत्थर पैरों पर
और बची हुई सब जिम्मेदारियों के पत्थर
मेरे हाथों पे..अब
मैं आवाज दे रहा हूँ किसी अदीब को
कि वो आकर जुबान पर रखदे
किसी शाइर की कब्र का एक कंकर…
कायनात परेशां है…
“मैं बोलता बहुत हूँ”
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“ठक से!”

वो ठक से रुक गई…
मेरा जवाब सुनकर..
जब उसने पूछा तुम अकेले में
किनारों पे बैठ कर क्या करते हो…
और मैं बोला”संगीत सीखता हूँ”
वाह!
तब तो तुम आसमां से रंग भरना,
झरनों से नृत्य करना..
पहाड़ो से मूर्तियाँ गढ़ना,
जंगलों से कविता करना सीख सकते हो..
जीना सीखना हो तो कहां जाते हो?
मैं फुसफुसाया..
तुम्हारे होंठो से मुस्कुराना सीख रहा हूँ
और आंखों से झूठ बोलना
ज़िंदगी इसके अलावा कुछ और भी है क्या?

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फ़क़ीरनी

अरे!कोई घर पे है…
कोई ठंडी-गरम रोटी
नया-पुराना खाने को हो तो दो
भूख लगी है
“भूख”
इतना जोर से कैसे चीख सकती है
वो भी इतना मीठा कि यूँ लगे
ज्यों किसी नरभक्षी ने
शहद के खंजर से काटा है कोई मानव
भूरी आंखों वाली वो “फ़क़ीरनी”
जिसके पिचके हुए गाल
इक पूरे जिंदगी का कलेंडर लटकाए
भटक रहे थे इधर से उधर
यहां से वहां
उस मौसम की तलाश में..
आसमां के पार वाला वो
पब्लिकेशन हाउस
जिसे छापना भूल गया था..
मैं झुंझलाता हुआ गेट तक पहुंचा
झुंझलाना मेरी आदत है
ये ठीक वैसा है जैसे
असम-बंगाल-बिहार वाले लोग
जब मुम्बई में समंदर किनारे बैठते है
तो नदी की इक लहर को भी
बाढ़ समझ लेते है
और भाग जाते है अपने
झोंपड़ों की तरफ..
मेरे कदम ठिठक गए थे
उसके दो हाथों में
चीन और भारत को
अठखेलिया करते देख
तीन बच्चे दो हाथों में
और कंधे पर फटा हुआ थैला भी
मेरी झुंझलाहट को
उल्टी होने वाली थी
इतनी जवान हो, मजबूत भी
कुछ काम-धाम क्यूँ नहीं करती
आंगनवाड़ी-नरेगा इतना सब तो है
तुम लोगों को मांगने की
आदत पड़ गई है..
मुझे लगता है वो बुदबुदाई होगी
मन ही मन में
और “पढ़े-लिखों को डिग्रीयां छाँटने की..”
पर वो चुप थी
बिल्कुल रुआंसी
बोली!
चली तो जाऊं
मगर घर में बाप भी है
पति भी,
इक शराब में सोया है
और दूजा लकवे में..
एक बच्ची वही अपना
बचपना पका रही है
स्कूल गई होती तो
कुछ कर भी लेेती..
बाबूजी! आपको कुछ
देना हो तो दो
दो रोटी के लिए इतनी माथाफोड़ी
कोई नहीं करता..
मैंने शर्मिंदा होकर दस का नोट दिया
वो मुस्कुराई, चलती बनी
और मुड के बोला
बाबूजी!पढ़े लिखे हो..
तो गुस्सा खुद पर मत निकाला करो
आपके हाथ और गर्दन का
घाव “डरावना” है..
बड़ी अजीब बात है
वो फटे कपड़ो वाली
बिल्कुल गंवार
अनपढ़-अल्हड़ फ़क़ीरनी
” पढ़ना जानती थी”
अब मैं अपने घर की
एम.ए पास अमीरनी से गुस्सा हूँ

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मेरी दुनिया

तुम मेरी दुनिया हो..
दुनिया समझती हो ना..
भगवान का बनाया हुआ वो बक्सा जिसमें
भरे पड़े है बीसीयों देश,सैकड़ो नदियां
और कई पहाड़..
मैं भी किसी जुनूनी लड़के की तरह
अक्सर कोशिश करता हूँ कि
घूम लूं ये पूरी दुनिया..
लेकिन अटक जाता हूँ
किसी एक जगह पर…
जिसे निहारते निहारते
बीत जाता है सारा वक्त..
तुम्हारी आंखे अमरीका है
और दिल रूस
बिल्कुल भी नहीं बनती दोनों की…
तुम्हारा ललाट और तुम्हारे पांव
उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव है
खिले रहते है तब तक
जब तक मैं साथ हूँ
बिछोह के बाद छा जाता है
घना अंधेरा,देर तलक…
तुम्हारे दोनों कान जो कि झूमर बंधे है
उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया है
डर लगता है इनसे कुछ गलत कहने में..
तुम्हारे होंठ भारत है जीभ अफगान
और दांत हिंदुकुश की पहाड़ियां..
तुम्हारे गाल और ओंठ के नीचे का तिल
श्रीलंका और नेपाल,बहोत छोटे
लेकिन इनके बिना कुछ भी नहीं..
तुम्हारी गर्दन के नीचे है हिन्द का सागर
तुम्हारी छातियों के सफेद पहाड
वो जगहें जहां की बर्फ कभी नहीं पिघलती…
तुम्हारी पीठ का ये फिसलन वाला इलाका…
फ्रांस का वो शहर है जिसे पेरिस कहते है..
चूमते चूमते सदियां गुजार दो चाहे…
तुम्हारी कमर के ठीक ऊपर है एक खाली वृत
ये वहीं बरमूडा ट्रायंगल है अंधेरे में जहाँ
मैं अक्सर खो जाता हूं और खुद को भी नहीं मिलता..
तुम्हारे जिस्मों-दिल के वे हिस्से जो आज भी ज़ख्मी है
वो जो अक्सर पुरानी बातें छेड़ देते है
वो हिस्से जो तुम्हारी और मेरी शांति के दुश्मन है
वो हिस्से,मुझे जिनसे प्यार भी है नफरत भी
बस वही, हां वही पाकिस्तान है।
—धीरज दवे

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“कैंसर”

और फिर यूँ होगा इक दिन कि
सब लोग मर जायेंगे कैंसर से
बच्चे,बूढ़े,औरतें खत्म हो जाएंगे
फ़क़त खाना खाकर,पानी पीकर
दवाई लेकर…
किसी को नहीं मिलेगा दफनाने वाला
जलाने वाला…
यहाँ तक कि गिद्ध भी बोटियाँ नहीं खाएंगे
जमीनों से कीड़े निकलेंगे…
मसानों से गांठे…
और झाड़ पर उगेगी खून पीती हुई लटे..
कटी हुई छातियाँ,सूजे हुए पेट, सड़ी हुई आंते
पड़ी होगी बावड़ियों में..
तालाब और समंदर लाशों से अटे होंगे..
मंदिरों-मस्जिदों में फटे कपडे
और हजारों जुड़े हुए हाथ
सिर्फ हाथ
सिर्फ हाथ
बना रहे होंगे अपनी परछाई
और वही कही एक बड़े बंगले में
पड़ा होगा दुनिया का आखिरी आदमी
अपनी गोद में माँ-बहुँ-बेटे-बेटियों
की लाश लेकर
औऱ फूंक रहा होगा वो कागज
जिसपे लिखा था उसने…
“मिलावट करके पैसे कमाए जाते है”