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‘फ़ोन’

फ़ोन के दोनों तरफ आवाजें है, प्रेम है!
फोन पर गर एक भी है मौन,तो है इंतज़ार…
फोन में भरे हुए हुंकारे है अनकही नाराजगी..
बीसीयों बार फोन करके काटना, मज़बूरी है
हलक के आखिरी हिस्से में दबे हुए लफ्ज़ की..
और अगर दोनों तरफ ही
इंतज़ार है किसी के फ़ोन का…तो
अफसोस…
प्रेम आउट ऑफ कवरेज है…और
आप ईगो के रोमिंग में प्रवेश कर चुके है

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“कायनात”

दस बड़े पत्थरो के नीचे दबा हुआ एक आदमी
मुझे याद आ रहे थे वे सब लोग
जो चिढ़ाते थे कभी दुलारते भी
मुझे ‘नन्हें’ कह कर..
मगर जब हर एक पत्थर ढक चुका है मेरे तन को
और अभी भी गुंजाइश है कि मैं एक पहाड़ ढो सकूं
मुझे गुमान हो रहा है अपनी कद-काठी पे
प्रेम,पैसा,परिवार के तीन पत्थर सीने पे
समाज,इज़्ज़त और रिश्तों के पत्थर पैरों पर
और बची हुई सब जिम्मेदारियों के पत्थर
मेरे हाथों पे..अब
मैं आवाज दे रहा हूँ किसी अदीब को
कि वो आकर जुबान पर रखदे
किसी शाइर की कब्र का एक कंकर…
कायनात परेशां है…
“मैं बोलता बहुत हूँ”
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“ठक से!”

वो ठक से रुक गई…
मेरा जवाब सुनकर..
जब उसने पूछा तुम अकेले में
किनारों पे बैठ कर क्या करते हो…
और मैं बोला”संगीत सीखता हूँ”
वाह!
तब तो तुम आसमां से रंग भरना,
झरनों से नृत्य करना..
पहाड़ो से मूर्तियाँ गढ़ना,
जंगलों से कविता करना सीख सकते हो..
जीना सीखना हो तो कहां जाते हो?
मैं फुसफुसाया..
तुम्हारे होंठो से मुस्कुराना सीख रहा हूँ
और आंखों से झूठ बोलना
ज़िंदगी इसके अलावा कुछ और भी है क्या?