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“Netflix”

मैं ख़्वाब में जब भी
तुम्हारे साथ कोई शाम गुजारता हूँ
उसमें कभी नहीं देखता मैं
हम दोनों को हाथों में हाथ ड़ालकर
छत पे घूमते हुए
या गांव के किसी मेले में
एक झूले पे बैठकर
इक-दूसरे की झूठी कुल्फियां खाते हुए
मैं अक्सर देखता हूँ हम-दोनों को
किसी हिल स्टेशन पे बने हुए
किसी खूबसूरत होटेल के
सबसे ठंडे कमरे में
जहां खिड़कियों से बारिश और पहाड़
दोनों-दोनों साफ दिखते है
तुमने मेरा तोहफे में दिया
वो खुबसूरत गाउन पहना है
और हम दोनों
कॉफी के कप लिए
उस आदमकद बेड पर अधलेटे हुए
नेटफ्लिक्स पर तुम्हारी आईडी से
देख रहे है मेरी पसंदीदा वेब सीरीज
ठंड में कांपती हुई तुम
सो गई हो मेरी हथेली पे
और मैं वॉल्यूम के बटन को
दबाने में लगा हूँ…
तुम्हारी नींद बस नवाज के
डायलॉग पे खुलती है
और तुम मुझे कह रही हो
“सुनो! तुम्हे नींद आये तो सो जाना
मैं देख रही हूं”
सोने से पहले क्लियर तो करती
क्या देख रही हो?
ख़्वाब या पिक्चर
पागल लड़की

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थकावट

मैं जब भी थक जाता हूँ
बैठ जाता हूँ
नज़्मों की दो-चार किताबें लेकर
हर एक नज़्म सोखती है
मेरे माथे के पसीने को
भागते हुए खून को धीमा करती है
अकड़ती हुई नसे ढीली पड़ने लगती है
और आँखों की आग
पानी पकड़ लेती है
तुम्हारी आदतों में भी शुमार है
थक जाने के बाद अक्सर
वक्त-बेवक्त नहा लेना
न जाने उस रोज
कौनसा पहाड़ चढ़े थे हम
कहां भागे थे
कि लग गए थे
इक साथ दोनों
अपनी थकावट उतारने में
मेरी आवाज में
सुन रही थी तुम नज़्में
और मैं नज़्मों की किताब को
नहाते हुए देख रहा था
न जाने कितने लफ़्ज़ों के मानी
तुमने मुझसे पूछे
न जाने कितनी बार आहें भरी
न जाने कितनी बार खिलखिलाई तुम
और मैं,
बाथ टब में भीने हो रहे
उस नज़्मों के पुलिन्दे को
अपने कमरे में सुखाने ले गया…
हम फिर जाएंगे
थकावट उतारने को…

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