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“चंदा-रजनी”

गली-गली में भटक रहा है एक दीवाना रजनी का
शाम ढले ज्यूँ घर आता है रूठा साजन सजनी का
तारे-जुगन यार है इसके इन तीनो की तिकड़ी है
ठंडी ठंडी पवन बताती के चंदा-रजनी जिगरी है
रजनी की बाहों में जब उसकी आंखे लग जायेगी
हवा थपकियां देगी उसको रजनी गीत सुनाएगी
दिन में जब इस घर का ताला सूरज चाचा खोलेंगे
आंखों में अंगारे होंगे वो गुस्से मे कुछ बोलेंगे
तब रजनी के गालो पर हल्की लाली आ जायेगी
चंदा भी शर्माएगा और रजनी भी शर्माएगी
हाथ पकड़ भागेंगे दोनों दूजे कोने जाएंगे
सूरज चाचा जब न होंगे शाम ढले फिर आएंगे
इनका साथ अमर है इनकी प्रीत अमर है बरसो से
चंदा और रजनी का जग में नाम अमर है बरसो से

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“नज़्म”

किसी रोज छत के उस हवादार कमरे में
जहां गिर रही हो चाँदनी झरोखों से
और चूमती हो शेल्फ के झूठे परिंदों को
तुम खींचती हो कैनवास पे रंगीन चेहरों को
और एक कोने में बैठकर
मैं लिख रहा हूँ जान की बेजान बातो को
सोचता हूँ यूँ ही कभी उस सर्द फर्श पर
सो जाओ तुम मेरे लफ़्ज़ों में लिपटकर
और मैं तुम्हारी कूचियों संग करवटें बदलू
नज़्मरात के उस स्याह कागज पर मेरी उंगलियों से
तुम बनाओ इश्क की ज़िंदा पैकरी, और
मैं लिखू वो नज़्म तेरी पीठ पर
जिसको पढूं मैं और रटू मैं उम्रभर….