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“सोचने के पैसे”

सोचने के पैसे लगते है?
नहीं!
तो तुम सोचती क्यूँ नहीं,
हमारा साथ
हमारा घर,
बारिशें
खिड़कियां
गैलरी
किताबें
चाय
पहाड़
पकौड़े
औऱ अगर तुमने सोच रखा है
हमारा अलग होना,
किसी जंगल को
सुलगता हुआ देखती हो तुम,
तुम्हारे दिमाग मे
पहाड़ के तले
दबकर मर रहा है कोई गांव
तो सुनो!
मान लो
सोचने के पैसे लगते है….

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“सुनाई देने लगा”

लहर थमी तो संमदर सुनाई देने लगा
मुझे तूफान मिरे अंदर सुनाई देने लगा

किसी किताब में मौहब्बत का लफ्ज़ यूँ चीखा
मुझे फिराक का मंजर सुनाई देने लगा

मिरे पतंग ने कटकर जमीं को चूम लिया
मिरे मयार को कलंदर सुनाई देने लगा

मैं उसके होंठ लगा हूँ तो किस खयाल में हूँ
चुभे है आह औऱ खंजर सुनाई देने लगा

–धीरज दवे