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फ़क़ीरनी

अरे!कोई घर पे है…
कोई ठंडी-गरम रोटी
नया-पुराना खाने को हो तो दो
भूख लगी है
“भूख”
इतना जोर से कैसे चीख सकती है
वो भी इतना मीठा कि यूँ लगे
ज्यों किसी नरभक्षी ने
शहद के खंजर से काटा है कोई मानव
भूरी आंखों वाली वो “फ़क़ीरनी”
जिसके पिचके हुए गाल
इक पूरे जिंदगी का कलेंडर लटकाए
भटक रहे थे इधर से उधर
यहां से वहां
उस मौसम की तलाश में..
आसमां के पार वाला वो
पब्लिकेशन हाउस
जिसे छापना भूल गया था..
मैं झुंझलाता हुआ गेट तक पहुंचा
झुंझलाना मेरी आदत है
ये ठीक वैसा है जैसे
असम-बंगाल-बिहार वाले लोग
जब मुम्बई में समंदर किनारे बैठते है
तो नदी की इक लहर को भी
बाढ़ समझ लेते है
और भाग जाते है अपने
झोंपड़ों की तरफ..
मेरे कदम ठिठक गए थे
उसके दो हाथों में
चीन और भारत को
अठखेलिया करते देख
तीन बच्चे दो हाथों में
और कंधे पर फटा हुआ थैला भी
मेरी झुंझलाहट को
उल्टी होने वाली थी
इतनी जवान हो, मजबूत भी
कुछ काम-धाम क्यूँ नहीं करती
आंगनवाड़ी-नरेगा इतना सब तो है
तुम लोगों को मांगने की
आदत पड़ गई है..
मुझे लगता है वो बुदबुदाई होगी
मन ही मन में
और “पढ़े-लिखों को डिग्रीयां छाँटने की..”
पर वो चुप थी
बिल्कुल रुआंसी
बोली!
चली तो जाऊं
मगर घर में बाप भी है
पति भी,
इक शराब में सोया है
और दूजा लकवे में..
एक बच्ची वही अपना
बचपना पका रही है
स्कूल गई होती तो
कुछ कर भी लेेती..
बाबूजी! आपको कुछ
देना हो तो दो
दो रोटी के लिए इतनी माथाफोड़ी
कोई नहीं करता..
मैंने शर्मिंदा होकर दस का नोट दिया
वो मुस्कुराई, चलती बनी
और मुड के बोला
बाबूजी!पढ़े लिखे हो..
तो गुस्सा खुद पर मत निकाला करो
आपके हाथ और गर्दन का
घाव “डरावना” है..
बड़ी अजीब बात है
वो फटे कपड़ो वाली
बिल्कुल गंवार
अनपढ़-अल्हड़ फ़क़ीरनी
” पढ़ना जानती थी”
अब मैं अपने घर की
एम.ए पास अमीरनी से गुस्सा हूँ

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