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“आँखे”

नींद का घर तलाशती आंखे
ख़्वाब की सम्त झांकती आंखे

मेरे चेहरे के स्याह बर्तन को
अपने पानी से माँजती आंखे

एक टक देखती हुई उसको
उसकी आँखों से भागती आंखे

दोस्ती की हर एक खूंटी पर
इश्क का स्केच टाँगती आंखे

रूह का घाव देख लेती है
मेरी आँखें हैं पारखी आंखे

चैन से सो रहे मुकद्दर में

क्यूँ लिखी है ये जागती आंखे

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गालियां

बदन को खाक करूं खाद ये शजर में दूँ
हमारे इश्क कि बरबादियाँ खबर में दूँ

तुने देखा ही नहीं है मिरे इरादों को
मिरी तो चाह है कि गालियाँ बहर में दूँ

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“फसीलें”

अक्सर ऐसे लोग हठीले होते है
जिन लोगो के नक्श छबीले होते है

इक तुम हो जो दरिया होके सूखे हो
हम बालू है फिर भी गीले होते है

एक वहशी ने बहता पानी चूमा था
तब से सारे बादल नीले होते है

वो खद्दर के पहलू में छुप जाते है
जिन लोगों के नाड़े ढ़ीले होते है

उन आँखो में अक्सर दरिया रहता है
जिनके भीतर दुख के टीले होते है

जिन गहनों को काला पड़ना होता है
यारों वो कितने चमकीले होते है

दिखने में तो टपरी जैसे लगते है
घर के बूढ़े लोग फसीले होते है

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“करेला”

जितना मन हो उतना ऊंचा गाओ ना
लेकिन खुद में सादापन भी लाओ ना

यार सुनो तुम तो अच्छा लिख लेते हो
इंस्टा छोड़ो महफ़िल में भी जाओ ना

ग़ज़ले-ठुमरी तो सारे गा लेते है
आओ बैठो अच्छा गाना गाओ न

सदरे-महफ़िल नोंच रहा था खुदको ही
मैं बोला था खालिस शायर लाओ ना

सब दुश्मन आसानी से मर जाएंगे
उनके आगे हँसते-हँसते जाओ ना

‘धीरज’ तुम भी कितना कड़वा कहते हो
बर्फी छोड़ो रोज करेला खाओ ना