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“कायनात”

दस बड़े पत्थरो के नीचे दबा हुआ एक आदमी
मुझे याद आ रहे थे वे सब लोग
जो चिढ़ाते थे कभी दुलारते भी
मुझे ‘नन्हें’ कह कर..
मगर जब हर एक पत्थर ढक चुका है मेरे तन को
और अभी भी गुंजाइश है कि मैं एक पहाड़ ढो सकूं
मुझे गुमान हो रहा है अपनी कद-काठी पे
प्रेम,पैसा,परिवार के तीन पत्थर सीने पे
समाज,इज़्ज़त और रिश्तों के पत्थर पैरों पर
और बची हुई सब जिम्मेदारियों के पत्थर
मेरे हाथों पे..अब
मैं आवाज दे रहा हूँ किसी अदीब को
कि वो आकर जुबान पर रखदे
किसी शाइर की कब्र का एक कंकर…
कायनात परेशां है…
“मैं बोलता बहुत हूँ”

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