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“मनवा”

धीमें-धीमें फीका पड़ता जाए है
तेरा चेहरा मन से बिसरा जाए है

मुझको है न प्रीत न उससे लाग कोई
तो क्यूँ रोऊँ हूँ क्यूँ मन धोखा खाये है

सब बातें है बातों का क्या है आखिर
मन जाने है मन मन को समझाए है

वो झूठा है मैं झूठा हूँ सब झूठे है
फिर क्यूँ मनवा सांचा मोह लगाए है

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